द्विज आश्रम धर्म

द्विजत्व और गायत्री जप ~

उपनयन संस्कार हो जाने अर्थात यज्ञोपवीत धारण कर लेने के पश्चात योग्य पुरुष की द्विज संज्ञा हो जाती है। द्विज यदि गायत्री मंत्र दीक्षित होने पर भी एक सप्ताह तक त्रिकाल संध्योपासना नहीं करता और गायत्री मंत्र का जप नहीं करता तो वह स्वधर्म से भ्रष्ट हो जाता है।

चारों आश्रमों में विशेष कल्याण कारक आश्रम और आश्रम धर्म ~

सनातन धर्म में चार आश्रमों की व्याख्या की गई है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। इनमें गृहस्थ-आश्रम की सर्वत्र प्रशंसा की गई है क्योंकि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यासी- इन सबका आधार गृहस्थ-आश्रम ही है। देवता, मनुष्य, पितर तथा पशु-पक्षी आदि भी प्रतिदिन गृहस्थ से ही अपनी जीविका चलाते हैं, इसलिये गृहस्थाश्रम सर्वश्रेष्ठ और सभी का कल्याण करने वाला है। जो गृहस्थ स्नान, होम अथवा दान किये बिना ही भोजन कर लेता है, वह देवता आदि का ऋणी होकर नरक में पड़ता है।
जो हठ से, लोकभय से अथवा स्वार्थ से ब्रह्मचर्य व्रतको धारण करता है, किंतु मन-ही- मन विषयभोगों का चिन्तन करता रहता है, उसका धारण किया हुआ व्रत भी नहीं के समान हो जाता है।
परायी स्त्रीका परित्याग करने, अपनी ही स्त्रीसे सन्तुष्ट रहने तथा ऋतुकाल के समय पत्नी- समागम करनेवाले गृहस्थको ब्रह्मचारी ही कहा गया है। जिसने राग-द्वेषको त्याग दिया है, जो काम -क्रोध से दूर रहता है, वह अग्नि और स्त्रीके साथ रहनेवाला गृहस्थ वानप्रस्थ से भी बढ़कर(श्रेष्ठ) है।
जो वैराग्यसे घर छोड़कर निकले, किंतु हृदयमें घर का सदा चिन्तन करता रहे, वह दोनों ओरसे भ्रष्ट होता है। उसको न तो गृहस्थ कहा जा सकता है और न वानप्रस्थ ही।
जो गृहस्थ बिना माँगे प्राप्त हुई जीविका से जीवन निर्वाह करता और प्राप्त हुई वस्तु से सन्तुष्ट रहता है, वह संन्यासी से भी बढ़कर(श्रेष्ठ) है।
जो सन्यासी जहाँ कहीं भी कोई दुर्लभ वस्तु भी माँग बैठता है और भोजन से सन्तुष्ट नहीं होता अर्थात हमेशा स्वादिष्ट और पर्याप्त भोजन की आशा करता है वह संन्यास-धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है।

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