पुत्र धर्म(पुत्र का शास्त्रोक्त कर्तव्य) क्या है?
सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा जी के पुत्र और भगवान विष्णु जी के परमभक्त देवर्षि नारद जी ने कहा है कि पुत्र के लिए माता -पिता के आज्ञापालन को छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है, दूसरा कोई तीर्थ नहीं है तथा दूसरा कोई देवता, गुरु और सत्कर्म नहीं है। त्रिलोकी(तीनों लोकों) में पुत्र के लिए माता-पिता से बढ़कर कोई भी नहीं है। गर्भ में धारण करने और बाल्यावस्था में पोषण करने के कारण माता का गौरव पिता से भी बढ़कर है।
इसलिए पुत्र को चाहिए कि वह अपने माता पिता की प्रसन्न मन से सेवा करे।
क्या अपने गृह -कुटुंब का त्याग कर देने(वैराग्य धारण कर लेने) के पश्चात अपने माता -पिता का भी त्याग कर देना चाहिए?
देवर्षि नारद जी आगे कहते हैं –
संन्यस्ताखिलकर्मापि पितुर्वन्यो हि मस्करी। सर्ववंद्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नतः।। इदमेव तपोऽत्युग्रमिदमेव परं व्रतम्। अयमेव परो धर्मो यत्पित्रोः परितोषणम् ॥ (स्कंद पुराण से)
भावार्थ ~ समस्त कर्मों का संन्यास(त्याग) करने वाले संन्यासी के द्वारा भी पिता वन्दनीय है। उस सर्ववन्द्य(सभी के द्वारा वंदित) संन्यासी को भी प्रयत्नपूर्वक अपनी माता के चरणों की वन्दना करनी चाहिए। यही अत्यन्त उग्र तपस्या है, यही सबसे श्रेष्ठ व्रत है और यही सर्वोत्तम धर्म है कि अपने पिता-माता को सन्तुष्ट(प्रसन्न) किया जाय।