चातुर्मास माहात्म्य

चातुर्मास माहात्म्य ~

भगवान सूर्य के कर्क राशि पर स्थित रहते हुए आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक, वर्षाकालीन इन चार महीनों में भगवान विष्णु जी शेषशय्या पर योगनिद्रा में रहते हैं। अतः यह समय भगवान विष्णु जी की आराधना के लिए सर्वोत्तम है। इस समय सब तीर्थ, देवस्थान, दान आदि कर्म भगवान विष्णु जी की शरण लेकर स्थित होते हैं।
जो व्यक्ति भगवान के शयन करने पर विशेषत: उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटि गुना फल मिलता है।
चतुर्मास सब गुणों से युक्त उत्कृष्ट समय है इसलिए इसमें श्रद्धापूर्वक धर्म का अनुष्ठान करना चाहिए ।
सद्धर्म, सत्संग-श्रवण, सत्पुरुषों की सेवा, संतो के दर्शन, भगवान का पूजन आदि सत्कर्मों में संलग्न रहना और सुपात्र को दान देना – ये सब बातें चतुर्मास में अत्यंत कल्याणकारी बताई गयी हैं।
चातुर्मास में धर्म का पालन, सत्पुरुषों की सेवा, संतों का दर्शन, सत्संग-श्रवण भगवान विष्णु जी का पूजन करना चाहिए।
चतुर्मास में भगवान विष्णु जी के योग निद्रा में शयन करने के कारण इसमें शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते हैं।


चातुर्मास में निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए –

इन दिनों भूमि पर (चटाई, कम्बल, चादर आदि बिछाकर) शयन, ब्रह्मचर्य-पालन, उपवास, मौन, ध्यान, जप, दान-पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।

चातुर्मास में ये ४ महीनों में दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करना चाहिये। १५ दिन में १ दिन उपवास करने से, १४ दिन का खाया हुआ जो तुम्हारा अन्न है वो ओज में बदल जायेगा ओज, तेज और बुद्धि को बलवान बनायेगा।

जो मनुष्य चतुर्मास में नदी में स्नान करता है, वह सिद्धि को प्राप्त करता है और तीर्थ में स्नान करने पर पापों का नाश होता है ।

जल में आँवला मिलाकर स्नान करने से पुरुष तेजवान होता है और नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है तथा आंवला-मिश्री जल से स्नान महान पुण्य प्रदान करता है।
जल में तिल और आँवले का मिश्रण अथवा बिल्वपत्र डालकर स्नान करने से दोष का लेशमात्र नहीं रह जाता।
चातुर्मास में जीवों पर दया तथा अन्न-जल व गौओं का दान, हवन ये सब महान फल देनेवाले होते हैं।

जो भगवान की प्रीति के लिए श्रद्धा पूर्वक प्रिय वस्तु और भोग का त्याग करता है, वह अनन्त फल पाता है। दान, दया और इन्द्रिय संयम ये उत्तम धर्म करने वाले को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है ।

चातुर्मास में नित्य परिमित भोजन से पातकों का नाश और एक बार अन्न का भोजन करने वाला रोगी नहीं होता और एक समय भोजन करने से द्वादश यज्ञ फल मिलता है।

यदि कोई चातुर्मास में केवल दूध अथवा फल खाकर रहता है तो उसके सहस्त्र पाप नष्ट होते हैं और केवल जल पीकर रहता है तो उसे रोज अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है।


चातुर्मास में क्या नहीं करना चाहिए?

चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। इन दिनों धातु के पात्रों का त्याग कर पलाश के पत्तों पर भोजन करनेवाला ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है। इन दिनों में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करें।
ग्रहण के सिवाय के दिनों में सन्ध्याकाल में और रात को स्नान न करें । गर्म जल से भी स्नान नहीं करना चाहिए ।
चतुर्मास में काला और नीला वस्त्र पहनना हानिकर है । इन दिनों में हजामत (केश संवारना) करना त्याग दें तो तीनों तापों से रहित हो जाता है ।
इन चार महिनों में भूमि पर शयन, ब्रह्मचर्य का पालन (उत्तम व्रत-अनन्त फलदायी), पत्तल में भोजन, उपवास, मौन, जप, ध्यान, दान-पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं ।

चातुर्मास में पराया धन हड़प लेना, परस्त्री से समागम करना, निंदा करना, ब्रह्मचर्य तोड़ना आदि महान हानिकारक है।

चातुर्मास के दिनों में ताँबे व काँसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करना चाहिए। ताम्बे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिये पानी नहीं पीना चाहिये।

चातुर्मास में परनिन्दा करना और सुनना दोनो का पूरी तरह त्याग करें। कहा गया है कि परनिंदा महा पापं परनिंदा महाभयं परनिंदा महा दुखंतस्या: पातकम न परम। अर्थात परनिंदा महा पाप है, परनिंदा महा भय है, परनिंदा महा दुःख है, उससे बड़ा कोई पाप नहीं है।

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *